पं. गोविन्द झा


गोविन्द झा 1923-
जन्मस्थान-इसहपुर, सनकोर्थु सरिसब पाही, मधुबनी, बिहार । प्रसिद्धकथाहार,उपन्यासकार, नाटककार, भाषा वैज्ञानिक ओ अनुवादक। साहित्य अकादेमी पुरस्कार, साहित्य अकादेमी अनुवाद पुरस्कारसँ सम्मानित। बिहार सरकारसँ कामिल बुल्के पुरस्कार, ग्रियर्सन पुरस्कार आदिसँ सम्मानित । प्रकाशित कृति: उपन्यास, नाटक, कथा, कविता, भाषा विज्ञान आदि विभिन्न विधामे अड़तीस टा पोथी प्रकाशित । प्रकाशन: सामाक पौती,नेपाली साहित्यक इतिहास (अनु) आदि । १९९३- गोविन्द झा (सामाक पौती, कथा)पुस्तक लेल सहित्य अकादेमी पुरस्कारसँ सम्मानित ।१९९३- गोविन्द झा (नेपाली साहित्यक इतिहास- कुमार प्रधान, अंग्रेजी) लेल साहित्य अकादेमी मैथिली अनुवाद पुरस्कार। प्रबोध सम्मान 2006 सँ सम्मानित।
Maithili-English Dictionary
कविता:युग-पुरुष, अन्न देवता

युग-पुरुष
कत’ उघने जाइ छह हे युग-पुरुष ई
पर्वताकृति माथ?
अरे कोन पदार्थसँ छहु गर्भिणी ई मगज-पेटी?
बहै छहु अविराम एहिमे पर्मिं काष्ठक ह’र
तीक्ष्ण बुद्धिक फार, ज्ञानेन्द्रियक बसहा
विकट नियमक रासि
अकट तर्कक नाथ।
एहि सभकें गर्भमे कएने जरायु समान
पर्वताकृति माथ
कत’ उघने जाइ छह हे युग-पुरुष तों?
जा रहल छह आइ जोतै लेल नबका चास
दूर, अतिशय दूर?
जोति चुकलह घ’र लगक चैमास?
जोति चुकलह बाध-बोनक चास?
जोति चुकलह चीन ओ जापान?
रूस, अमेरिका, अरब, ईरान?
खूब तेज हँकै छह तों अपन मगजक ह’र।
बाह रे हरबाह!
जाह, जत्ते दूर जेबह, जाह।
शिवास्ते पन्थाह!
कते उपजौलह एखन धरि?
कए अरब टन? कए खरब टन?
ताहिसँ की भेलह नहि सन्तोष जे तों
आइ जोतए जा रहल छह दूर, अतिशय दूर
बढ़ि गेलहु अछि गृð दृष्टिक भूर
घ’रे बैसल देखि लै छह लाख योजन दूर।

दूर लटकल जे गगनमे चान
आइ हस्तामलकवत् से भ’ रहल छहु भान
देखि रहलह अछि जोत’ तों लहलहाइत चास
जा रहलह अछि ओतहि तों, अरे लोभक दास।
ल’ अपन ई पर् िंकाष्ठक ह’र!
वाह रे हरबाह
जाह, जत्ते दूर जएबह, जाह।
शिवास्ते पन्थाह।

अपन माथक भारसँ अपनहि पिचाइत
रेलवेक कुली जकाँ बेजान दौड़ल जा रहल
हे पर्वताकृति माथ
सर्षपाकृति माथ केर सम्वाद किछु सुनि लएह
गर्वसँ क’ उच्च मस्तक ताल-वक्ष-समान
जा रहलह अछि गगनसँ आइ आनए चान
हाल की धरतीक छै; नहि ताहि दिस छहु ध्यान
लगौने छह मात्रा ऊपर टकटकी बड़ जोर
कहि देतहु मुँहफट कोनो मैथिल अकास-काँकोड़
भेल नहि अछि आइयो धरतीक पीड़ा शान्त
होअह जँ, विश्वास नहि तँ चलह हमरा संग
भ’ जेतहु ‘स्पुतनिक युग’क अभिमान क्षणमे भंग
जखन देखबह अपन दुनू आँखिसँ प्रत्यक्ष
दूध बिनु म्रियमान शत-शत बाल
अन्न बिनु म्रियमान नर-कंकाल
वस्त्रा बिनु म्रियमान माइक लाज
धाँगि चुकलह अपन सप्तद्वीप धरती
मथि गेलह अगाध सातो सिन्धु
किन्तु नहिएँ कतहु भेटलहु एकर औषध हाय!
जा रहलह तें गगनमे आइ संजीवनी जोह’
जाह हे युगपुरुष, सुखसँ जाह
शिवास्ते पन्थाह!
कहह हमरा लेल अनबह कोन-कोन सनेस?
सर्षपाकृति माथकें चाही न किछु विशेष
भरल बाटी दूध लाबह भरल थारी भात
आर लाबह वस्त्रा टा भरि गात।
जाह हे युगपुरुष, सुखसँ जाह
शिवास्ते पन्थाह!

अन्न देवता
छल गगन-सन नील करड़िक पात
ताहि पर राकाक शशि-सन भात
ताहि पर छल हिंगु-गन्धी दालि
विविध व्यंजन तकर चारू कात
ताहि पर छल दृष्टि चिर धरि लग्न
किन्तु मन छल कतहु अन्तह मग्न।

‘खाह ने!’ कहि उठल के ई बात?
चकित भ’ चैदिस कएल दृक्पात
छल केओ नहि, कहि उठल ओ फेर
‘खाह ने! हम थिकहुँ परसल भात।
खाह झटपट, नहि करह अपमान
कोन चिन्तामे तोहर छहु ध्यान?’

सूनि भातक बोल ई अजगूत
फेर ताकल दृष्टि क’ मजगूत
भेल भासित हमर सम्मुख एक
प्राणवन्त पदार्थ, पिण्डीभूत
कहल हृदयक बात निःसंकोच
क्रोधवश, नहि रहल किछुओ रोच।

‘अरे मुट्ठी-भरि मनुक्खक दास
एकसरे हम खाउ तोहर माँस!
सन्निहित छह जकर कण-कण मध्य
लाख भूखल मानवक अंशांश!
खाउ एकसर कोन विधि हम, हाए!
नहि सकब एत गोट पाप पचाए
छल-छुरीसँ काटि आनक घेंट
जे अपन भरने रहै अछि टेंट
जाह, ओकरे ओतए हँसि क’ जाह
भरह ग’ ओकरे अगस्ती पेट
आ कि जँ छहु कतहु हृदयक लेश
जाह तँ झट ताहि भीषण देश
जतए भूखल प्रबल ज्वाला-मध्य
मानवक अछि अस्थि टा अवशेष
जाह बनि क’ ततए अमृत-धार
जाह झट, जा अस्थि होइ न छार।’

‘खाउ ने!’ कहि उठल के ई फेर?
छली गृह-लक्ष्मी स्वयं एहि बेर।
चलए लागल भात पर झट हाथ
गेल उड़ि सब कल्पना मन केर
किन्तु गिड़इत काल अनुभव भेल
काँट हो ग’रमे जेना गड़ि गेल।