तारानन्द वियोगी



तारानन्द वियोगी 1966-
महिषी, सहरसामे जन्म। पहिल पोथी- अपन युद्धक साक्ष्य (गजल संग्रह) १९९१ मे प्रकाशित। अन्य पुस्तक हस्तक्षेप (कविता-संग्रह), अतिक्रमण (कथा-संग्रह), शिलालेख(लघुकथा संग्रह), कर्मधारय (आलोचना-निबन्ध संग्रह)। राजकमल चौधरीक कथाकृति एकटा चंपाकली एकटा विषधर संकलन-सम्पादन। मैथिली बाल साहित्य लेल पहिल साहित्य अकादेमी पुरस्कार 2010 "ई भेटल तँ की भेटल" पोथी लेल।


तारानन्द वियोगी

प्रलय रहस्य

गुलो: कला आ भाषा (सम्पादक तारानन्द वियोगी आ केदार कानन)


किछु रचना
कथा- पन्द्रह अगस्त सन्तानबे


कविता- १.नन्दीग्रामपर पंचक, २.मीता, अहाँक हँसी, ३.पितामहसँ, ४.बागडोगरामे भिनुसरबा, ५.बाबा, ६.प्रभु राग, ७.संलग्न, ८.अद्वैत, ९.मिथिलाक लेल एक शोक गीत १०. बुद्धक दुख ११.हम थम्हैत छी जखन कलम


कथा
पन्द्रह अगस्त सन्तानबे


-तों हमरा बहुत तंग करै छह हीरा! देखहक जे आइ फेर लेट भ’ गेलै। एना काज चलतह? तहन तँ लगाए दहक धीया-पुताक मुँहमे जाबी-हीरा महतो अपनेकेँ अपना कहलनि।
-हम करिऐ तँ की करिऐ? मोने सक्कमे नइं रहैए। सब कहैए जे बेकार के चिन्तामे पड़ल छह, लेकिन हमरा कहाँ लगैए जे बेकार के चिन्ता छिऐ-हीरा महतो सोचलनि।
चारू कात रौद पसरि गेल रहै। महिसबार सभ महीस चरा क’ घुरि आएल रहए। हराठ गेनिहार सभक प्रायः अन्तिम दल बाध दिस प्रस्थान करै छल। कोढ़ियाठे हरबाह सभ आब बचल होअए तँ होअए। ऐती जैती तीन टा मैक्सी एखन धरि चैक परसँ विदा भ’ चुकल रहै। भोरुका बेरमे चैक पर चाह पिनहार लोक सभ आबि क’ घुरि गेल रहै। मास्टर लोकनि साइकिल पर सवार अपन-अपन स्कूल लेल विदा होअए लागल रहथि। चैक मेन्टेन केनिहार गामक बेरोजगार जुबक लोकनि अपन-अपन स्थान ग्रहण क’ नेने रहथि।
हीरा महतोकेँ आइ फेर देरी भ’ गेल रहनि।
उत्साहहीन आ लयहीन पैरेँ चलैत हीरा महतो अपन दोकान लग पहुँलाह। तीन-चारि गोटे मचान पर बैसल रहथि। सहरसा दिस जाइबला अनगौआं मोसाफिर लोकनि छलाह।
हीरा महतो कठघरा खोललनि। सर-समान बहार कएलनि। पानि भरि क’ अनलनि, बरतन-बासन धोलथि-पोछलथि आ स्टोव जरा क’ पानि चढ़ा देलखिन। औंटल दूध जे संग अनने छला तकरा दुधौंटामे ध’ देलखिन। ई सभ काज मुदा बड़ा असथिर-असथिर भेल। लागै छल जेना हीरा भीतरे-भीतर कोनो भारी गुनधुनमे पड़ल खौंत सहि रहल होथि आ ई सभटा काज जेना अपने, सहज गतिमे मशीनी ढंगसँ पूरा भ’ गेल हो।
-सएह, ई हालति भ’ गेलै समाजक? बसुदेवा हमरा एहन बात कहि देलक? बसुदेवा कहलक? हें...-हीरा महतो अपनेकेँ अपना कहलनि आ एक बेर उदास हँसी हँसलाह।
पहिल खेपक चाह तैयार भ’ गेल छलै। मोसाफिर सभ जे बैसल छलाह से लोकनि चाह मँगलनि। हीरा हुनका सभकेँ चाह देलखिन आ एक गिलासमे निकालि क’ अपनहुँ पीब’ लगलाह।
-की हीरा? खुलि गेलौ दोकान?-हीरा देखलनि पं. भोलानाथ मिसर छलाह। पुरान गांधीवादी। हीरासँ हुनका खूब अपेक्षितारए छलै, आ ओ एहि दोकानक नियमित गँहिकी छलाह।
-हँ कका, अबियौ। बैसियौ।-हीरा बजलाह आ पण्डिज जी लेल चाह बहार करए लगलाह।
पण्डित जी मचानक एक कोन पर बैसि गेलाह। ओ प्रायः जलाश्रय दिससँ घुरल छलाह। हुनका धोतीक निचला भागमे मारिते रास चिड़चिड़ी लागल रहनि।
पण्डित जीकेँ पाबि हीरा कने उत्साहित भ’ गेल छलाह। ओ अप्पन लोक-सन लागैत रहलखिन हें। ई बात भिन्न जे हीरा जहिया कहियो कोनो मुद्दा पर सीधा संघर्षमे फानलाह अछि, सभ दिन पण्डित जीकेँ अपना संग अएबाक अनुरोध केलखिन, मुदा ताहिसँ कहियो पण्डित जी सीधा संघर्षमे नइं उतरलाह। निष्कर्ष पर पहुँचलाह जे सीधा संघर्षे टा एक मात्रा रस्ता नइं छिऐक, पण्डित जीक जे बाट छनि सेहो अपना जगह पर ठीक छनि।
हीराक नजरि पण्डित जीक धोतीमे लागल चिड़चिड़ी पर पड़ल। ओ मुस्कियाइत बजलाह-सएह, एकरा देखियौ कका, चिड़चिड़ी सनक नाचीज वस्तु! की औकाति छै? लेकिन मनुक्ख सन बलशाली आदमी जँ एकरा दललक तँ तकरो नइं छोड़लक। भरि जानें बकुटि लेलक। की?
पण्डित जी हँस’ लगलाह। कहलखिन-गांधी जी देशवासीकेँ सभसँ पैघ बात इएह ने कहलखिन हौ! ओ कहलखिन जे जे जतहि छह, निर्भय बनह। बड़ पैघ बात ई भेलै की ने? देखहक हीरा, शोषक कतबो बलशाली होअए, लोक जँ ओकरासँ डेराएब छोड़ि दिअए, तँ प्रश्ने नइं छै जे ओ जीतत। भगवान जे ई दुनिया बनेलखिन, तँ सभकेँ उचित-उचित हथियार देलखिन, जे अपन-अपन रक्षा करह। से सबकेँ छै। मुदा, लोक भयभीत अछि, तँ अपने हथियार ओकरा अपने नइं देखार पड़ै छै! की?
-हँ कका, ठीके।-हीरा बजलाह-आब ई बात दोसर जे हथियार भगवान देलखिन आ कि लोककेँ अपनेसँ तकर विकास करबाक छै!
पण्डित जी मुस्किएलाह-हँ, हमरा-तोरा विचारमे एतबा तँ अन्तर रहले ताकए।
हीराक दोकानक बामाकात गोलम्बर छै। पाखरिक विशाल गाछक चैबगली जवाहरलालक रोजगार योजनाक अन्तर्गत गोल चबूतरा बना देल गेलैए। चारि बरख बनना भेलैए। एहि बीचमे, एक खेप तँ निर्माण भेल, आ दू-दू खेप मरम्मती भ’ चुकल अछि। ओ चबूतरा ताड़ीबाज, दारूबाज, गँजेरी, जुआरी सभक अतिरिक्त गामक बेरोजगार जुबक सभक आश्रय स्थल सेहो थिक।
ओहि गोलम्बर पर एखनहुँ गोट दसेक नौजबान सभक मजलिस लागल रहै। ताहि मजलिसमे एकाएक बड़ जोर हल्ला भेलै। हल्ला सूनि पण्डित जी उठि क’ ठाढ़ भेलाह आ पाँच डेग आगाँ बढ़ि देख’ लगलाह जे की बात अछि! कोनो बात नइं रहै। नौजबान सभ गाँजा पीबि रहल छल, निशांक आवेग मे थोड़े हँसी-मजाक भेल रहै। पण्डित जी आगाँ बढ़ि क’ नौजबान सभकेँ देखलनि तँ ओहो सभ पण्डित जीकेँ देखि लेलक। नौजबान सभ पण्डित जीकेँ देखलक तँ पूरा शक्ति लगा क’ मन्त्रा उचारलक-
बम भटक, चिलम पटक
दम मारए पुबारि टोल
गांड़ि फाटए पछबारि टोल
हर हर महादे... व...

पण्डित जी चुपचाप घुरि अएलाह। चिलम-पार्टीक नौजबान सभ पुबारि टोलक छल आ पण्डित जीक घर पछबारि टोल पड़ैत छलनि, कहब आवश्यक नइं।
पण्डित जी चुपचाप घुरि अएलाह। हीरा सभ टा बात सुनिए रहल छलाह। हुनका लेल ई कोनो नब बात नइं रहनि। चैकक इएह संस्कृति छलै, इएह सभ्यता। हीरा अनेक बेर एकर विश्लेषणो कएने रहथि आ निर्णय कएने रहथि जे वस्तुतः चैक सम्पूर्ण गामक सभ्यताक एक अइना मात्रा छल। ओ एकाध बेर एहि प्रकारक नौजबान सभसँ भिड़न्तो कएने रहथि। मुदा, हीराक हथियार बहुत पुरान छल। दुनाली बन्दूकसँ ए. के. 47 केँ मातु नइं देल जा सकैत छल। हीरा ओकरा सभकेँ कहने रहथिन-की यौ विद्यार्थी सब! इएह होइ? एखन जीवन निर्माणक समय अछि? माइ-बाप आस लगेने बैसल छथि। भारत माता कते सेहन्तासँ अहाँ सबकेँ देखि रहल छथि। इएह होइ?
हीरा अन्दाज कएने रहथि जे एतबा कहलाक बाद नौजबान सभ तर्क करत। चिलम पिबाक पक्षमे अपन विचार देत। कहत जे ई नेता सब आ ई लोकतंत्रा नौजबान पीढ़ीकेँ श्मशान-घाट पहुँचा देलकै-आब जीवन निर्माणक कोन सवाल? हीरा सोचने छलाह जे जुबक सभ एतबा बात कहत तँ हमहँू अपन बात कहबै जे रे भाइ, निराश भेने तँ काज नइं चलतहु। अन्हरिया जँ बड़ जड़िआएल छै तँ इजोतक ओरियान करी, तखन ने मर्द? हीरा अन्दाज कएने रहथि जे अन्ततः एहि जुबक सभकेँ जीवन दिस आ निर्माण दिस आकृष्ट कइए लेबनि!
मुदा, हीराकेँ खूब नीक जकाँ मोन छै। ओ नौजबान सभ कोनो तर्क, कोनो विचार नइं रखने रहए। ओ सभ गप-सपक भाषा गद्य मे कोनो उच्चारणे नइं कएने रहए, ओ सभ जबाब देने रहए कोरस-मय संगीतबद्ध पद्यमे-
बम भटक, चिलम पटक
दम मारए ब्राह्मण-पुत्रा
गांड़ि फाटए राड़-पुत्रा
हर हर महादे... व...
पण्डित जी चुपचाप घुरि अएलाह आ मचान पर बैसि रहलाह।
गँहिकी सभ पाइ द’ द’ क’ ससरि गेल रहए। सहरसा दिस जेबा लेल एकटा गाड़ी आबि गेल रहै। पाँच-छह गोटे जल्दीसँ चाह मांगलकै। ओकरो सभकेँ इएह गाड़ी पकड़बाक रहै। हीरा बिनु एक शब्द बजने गँहिकी सभकेँ चाह पियौलक आ पाइ लेलक। दोकान तखन खाली भ’ गेलै।
पण्डित जी पुछलखिन-हीरा, आइ-काल्हि तोरा बड़ उदासीन देखै छियह...
हीरा गिलास साफ करैत रहथि। बजलाह-हँ कका, हे इएह, बारहो बरनक अइंठ धोइ छी, अहिना धोइत रहब। एनामे के उदासीन नइं हैत?
पण्डित जीकेँ ओ समुच्चा प्रसंग मोन पड़ि गेलनि। तीन दिन पहिनेक ओ प्रसंग। ओही दिन साँझमे हीरा हुनका सुनौने रहथिन। हीरा ओहि दिन बहुत दुखी रहथि। हीराक मुँहेठ पर दुखक गहनता देखि क’ ओहि दिन पण्डित जी हिसाब कर’ लागल रहथि जे देसक आजादी दिन गांधी जीक मुँहेठ पर प्रायः एहने पीड़ा रहल हेतनि। ओ हीराकेँ सम्हारबाक बहुत कोसिस कएने रहथि। हनुमानकेँ जेना जामवन्त आत्मनिरीक्षण करबौने रहथिन, प्रायः सएह चेष्टा ओहि दिन पण्डित जी कएने रहथि। मुदा सभ व्यर्थ गेल जेना। हीरा आइयो दुखी छथि आ उदासीन छथि।
-कका, ओ खिस्सा अहाँकेँ मोन अछि? सन सतहत्तरि मे जे हमर दोकान जरौने रहए! अहाँ तँ ओहि समयमे गाममे नइं रहैत रही। ओही साल हम लखनउसँ घूरल रही। लखनउ युनिवर्सिटीमे सुनल-देखल बात सब अतमा मे हिलकोर लैत रहए। देखनहि रहिऐ जे इमरजेन्सी मे जनताकेँ कते सताएल गेल रहै। भारत माताकेँ कोना निखत्तर पहुँचाए देने रहै। हमर बाप ओही साल मुइल छलाह। माइ कहलक जे गामे आबि क’ दोकान-दौरी करह। अइ गामकेँ ताधरि हम चिन्हैत नइं रहिऐ कका! ओहि साल एलेक्सन जे भेल रहै, के ठाढ़ भेल रहथि अइ ठाँ सँ?
-हँ, नन्दकिशोर पाठक ठाढ़ भेल रहथि।-पण्डित जी कहलखिन।
-आ, से नन्दकिशोर पाठक ने हगबा जोग ने मुतबा जोग।
-हँ, ठीक कहलिऐ कका! आ ओएह अइ ठाँ सँ जीतल रहै। किऐ यौ बाबू, तँ ब्राह्मण छी। वाह रे जाति। समुच्चा ब्राह्मण समाज काँग्रेस दिस। आ पचपनिया जे रहै से तँ बुझियौ जे ब्राह्मणक पैर तरक खढ़ रहै। सबटा भोंट छापि लेलकै।
-तहिया बुझितो नइं रहै लोक आ हिम्मतो नइं रहै।-पण्डित जी कहलखिन।
-से बात असली नइं रहै कका। असली बात रहै जे लोक भिखमंगा रहै। उचित मजदूरी भेटै नइं तँ पेट नइं भरै। तखन तँ ब्राह्मणम् शरणम्। दिल्ली-पंजाब जहियासँ लोक देखलक, तहियासँ मुँहमे बोल होअए लगलै, माथमे दिमाग... हँ तँ से खैर! हमर मोन नइं मानलक। हम लखनउ यूनिवर्सिटीक हालति देखने छी कका! जान दै ले लोक तैयार रहए। उचित बात लोक तते चिकरि क’ बाजए जे अपकारी सब कोन दाबि दै। सब मामिलामे देस चलि आबैक। ई बात जे हैत से देसक हितमे की नइं? देशक कल्याण लेल जे उचित थिक, सएह टा एहि राज्यमे, कि एहि जिलामे होना चाही। आ से बुझबै? द्वारिका मिसर मुख्यमंत्राी नइं बनथि, तकर चेष्टा लेल जँ पचीस-पचास क्रान्तिकारी जुबककेँ गोली खाए पड़नि तँ तकरा लेल तैयार लोक भेटै छल। कैक टाकेँ तँ हम पुलिसक गोलीसँ मरैत देखलिऐ यूनिवर्सिटी गेट पर। हम तँ चाह-दोकानक नोकर रही, हमर की औकाति? लेकिन कका, पाँच-छह टा शहीद सभक जुलूसमे हम घाट तक गेल छी। छिनरी भाइ मलिकबा, तै लए हमरा आठ चैरिक मारि मारए...
हीरा महतो कने थम्हलाह, आ तुरंते पहुँचल दू टा गँहिकी लेल चाहक पानि चढ़ा देलनि। स्टोभ पर दूध चढ़ल रहै, तकरा उतारि देलनि।
हीराक गप्पक आवेग उतर’ लागल छल, मुदा विधिवत समापन करब हुनका जरूरी बुझना गेलनि। ओ बजलाह-सएह कहलहुँ कका, ताहू दिनमे अइ गाँमे हम ठाढ़ भ’ गेल रहिऐ। ब्राह्मण लोकनि तँ हमर बात नइं सुनलनि, लेकिन सौंसे गामक पचपनियाकेँ हम होशमे आनि देलिऐ।-हीरा फेर चुप भेलाह।
-हँ, ठीके होशमे आनि देलहक-पण्डित जी बजलाह।
-हँ, अपना दिमागसँ आदमी सोचए लागए, सएह ने होश भेलै।-हीराकेँ लगलनि जे पण्डित जीकेँ भाव पकड़ैमे किछु दिक्कति भ’ रहलनि अछि, ओ स्पष्ट कएलनि।
ससपेनमे चीनी आ चाह पत्ती खसबैत हीरा फेर बजलाह-आ तै गाममे आइ हम भगौआ-पड़ौआ भ’ गेलहुँ। ओ लुच्चा बसुदेबा कहलक जे लबर-लबर नइं करह, बारहो बरनक अइंठ धोइत जीवन गेलह हें, अहिना अपन चुपचाप करैत रहह। इएह होअए कका, इएह होअए?
हीरा महतो चुप भ’ गेलाह। मुदा, हुनक मुँहेंठ एकदम विकृत आ ललौन रहनि। बड़का बिहाड़ि-पानि भीतर चलि रहल छलनि, जकर झाँट बाहर मुखाकृति पर साफ खसैत देखार पड़ैत छल। ओ एकदम अशान्त छला। हुनक मौन एकदम भ्रामक मौन छलनि। ओ भीतरसँ एकदम मुखर छलाह। बाहर जँ मौन आबि क’ व्याप्त भ’ गेल छल तँ से एही टा कारण कि ओ गहन निस्संगताक पीड़ासँ दुखी रहथि।
-बाजब तँ, मुदा सुनत के? आ जँ क्यो सुनबे नइं करत तँ बाजब कथी लए-भीतरे-भीतर मुदा जड़ैत-धधकैत रहब, खौलैत-खदकैत रहब-एहि पीड़ाक अनुभव कहियो अहाँकेँ अछि?
हीरा जाहि प्रश्नसँ अपन बात समाप्त कएने रहए, तकर कोनो जवाब बूढ़ आ रिटायर्ड गांधीवादी, हाइस्कूलक मास्टर पण्डित भोलानाथ मिसर लग नइं रहनि। एहि प्रश्नक उत्तर एहि गाममे, एहि परोपट्टामे, एहि राज्य आ एहि देशमे ककरो लग नइं रहै...
पण्डित जी चुपचाप मूड़ी निहुरा लेलनि आ प्रकृतिस्थ हेबाक चेष्टा कर’ लगलाह। हीरा हुनको उद्विग्न क’ देने रहनि। ओ बजलाह-चलै छियह हीरा, आब! फेर सँझुकी पहर भेंट हेतै।
-बड़ बेस।-हीरा उत्तर देलकनि।
ता, दुसधटोली के आठ-दस टा जुबक सभ दोकान पर पहुँचलै। सभ क्यो बेरा-बेरी कहलकै-गोड़ लागै छियह हीरा कका!-हीरा सभक अभिवादन स्वीकार कएलनि।
ओकरा सभक मेठ रहै पितम्बर पासवान। ओ कहलकै जे जुबक सभ दिल्ली दिस चलै गेल अछि। की करतै? गाँमे कोनो काज-रोजगार नइं छै। बी. डी. ओ. जा धरि जेल नइं गेल रहै, ता धरि कोनो-ने-कोनो स्कीम चलैत रहै। मजूरी भेटि जाइक। मुदा, बी. डी. ओ. जेलो नइं जइतए तँ सेहो तँ नइं उचित। साला तिन-तिन हजार लोकक बुढ़बा पेंशन असगरे खा जाइ? जखन बड़का-बड़का नेता जेल जा सकै छथि तखन तँ बी. डी. ओ.केँ जेबाके चाही...
एकरा सभक दिल्ली गेनाइ हीराकेँ नीक नइं लगलै। ओ बजलाह-मियांक दौड़ मस्जिदे तक सब दिन रहतै पितम्बर?
पितम्बर बाजल-उपाय की कका?
-दिल्ली-पंजाब तँ पूँजी छिऐ ने हौ? ओएह जे कहबहक जे हमरा सभक जीवन छी, से त नइं ने छिऐ? ओतएसँ कमा क’ आनलह तँ आब अपन मातृभूमिकेँ रोशन करह। जेना देखहक तूँ जे दस टा जुबक छह, दसो मिलि क’ सौंसे फटोरिया बाध मनहुंडा पर ल’ लैह। दसो मिलि क’ ओतहि डेरा खसबह आ सौंसे बाधक सामूहिक खेती करह। बोरिंग दहक। टैªक्टर लगाबह। जेना ओतए खटै छह, तेना एतए खटह। दिल्ली-पंजाब फीका भ’ जेतौ पितम्बर!
हीरा कहलखिन आ प्रेरित-सम्मोहित करै लेल जेना थोड़े काल धरि पितम्बरक आँखिमे आँखि मिला क’ तकैत रहलाह।
-चाह दहक हीरा कका, आठ-दस गो।-पितम्बर बात बदलि देलक।
हीरा मुदा रौ मे छलाह, ओ बजलाह-नब्बे के एलेक्सन तोरा मोन छौ, पितम्बर? कोना दस-दस दिन हम सब घुरि कए घर नइं आबी! कोनो टोल कोनो घर नइं छोड़ने रहिऐ! अवधारि नेने रहथि ब्राह्मण सब जे जादबकेँ जीतए नइं देना छै। लेकिन देखलहक रहए, सबटा दछिनाहा पहलमान सब कोने दाबने रहि गेलै! एक्को टा बूथ कैप्चर क’ भेलै? आ, ओ जे गौरी झा हमरा पर बम फेंकने रहए पितम्बर, मननपुर चैक पर; मोन छौ ने, ओकरा पकड़ि क’ तूँ सब कते मारि मारने रहक!
पितम्बर सेहो आब अतीतक झलक पाबए लागल रहए। ओ बाजल-हँ कका, एह ओ तँ समैये जुलुम रहै!
-सभक जड़िमे छै मर्दानगी! अपन मातृभूमि पर जै शानसँ रहबहक, दिल्ली-पंजाबमे से शान चलतौ?-हीरा असली बात पर आबि गेलाह।
-अपन-अपन सोचै के बात छै!-पितम्बर फेर कनछी काटि गेल।
-ई बात किऐ कहलहक? हम की कोनो नजायज बात कहै छिअ’?-हीरा विचार-विनिमय के मूडमे छलाह।
पितम्बर एहि बेर सक्कत भ’ गेल। ओ बाजल-हीरा कका, एकटा बात पुछियह? खराबो लागतह?
-नइं भाइ, खराब किऐ लागत?
-तूँ तँ गोली-बम खा क’ जिता देलहक जादब जीकेँ। सरकारो बनि गेलह। लेकिन बाजह, दुसधटोलीमे एकटा इन्दिरा आवास बिना घूस के दिआए भेलह? धनुकटोलीमे ककरो एकटा बोरिंग भेटलै? तोरा टोलमे रोड बनलह? उचित बात जँ कहियो कहलहक तँ मेाजर देलकह जादब जी? नेता भेल के तँ असरफी दास आ बसुदेबा! तूँ ही ने कहैत रहह हीरा कका जे बसुदेबा पहिने मुंगेर लाइनमे पकेटमारी करैत रहए। आइ ओकर रुतबा देखहक। मुखमंत्राी एतै तँ ककरा दरबज्जा पर सरबत पीतै? तोरा दरबज्जा पर? छह मुखमंत्राी जोगर दरबज्जा? सेहो बसुदेबेकेँ छै ने हौ? मर्दानगी के गप की कहै छहक हीरा कका! भगवान जखन पेट देलखिन हें तँ कहुना लोक ओकरा भरै के जोगाड़मे लागत। अइमे मर्दानगी के कोन बात छै?-एक्के दममे पितम्बर बहुत रास बात कहि गेलै। मुदा, तुरन्त ओकरा लागलै जे कदाचित ओ किछु बेसिए रुक्ख भ’ गेल। ओ बाजल-माफ करिह’ हीरा कका! तूँ हमरा सबहक माथ के मुकुट छियह। लेकिन, उचित बात जँ बाजबहक तँ उचित बात सुनैयो ने पड़तह?
हीरा भकोभन्न चुप्पीमे बन्न भ’ गेलाह। खिस्सा फेर ओही ठाम आबि क’ ठमकि गेल रहए-ओही बसुदेबा लगमे।
जुबक सभ लए चाह बनि गेल रहै। ओ सभ चाह पिबिते रहए ता धरि मैक्सी स्टार्ट होअए लगलै। हबर-हबर सभ क्यो चाह खतम केलक। पितम्बर पैसा देलकै आ हीराकेँ पैर छूबि प्रणाम केलक। सभ जुबक बेरा-बेरी हीराकेँ प्रणाम केलक। पितम्बर कहलकै-चलै छियह हीरा कका, धीया-पुताकेँ देखिहक।
हीरा महतो कननमुँह भ’ गेल छलाह। गाड़ी खुलि गेलै। पितम्बरक अन्तिम वाक्य जेना वायुमण्डलमे गूँजैत रहलैक-धीया-पुताकंे देखिहक। धीया-पुताकेँ देखिहक।
-हें हें...-हीरा महतो मूड़ी डोलबैत एकान्ती हँसी हँसलाह आ अपनेकेँ अपना कहलखिन-इएह होइछै। लोक बड़ा जतनसँ घर ठाढ़ करैए। मुदा, पाँच बरस दस बरसमे घर ढहि जाइ छै! ठीक बात छिऐ। सभक एकटा औरदा होइ छै। मुदा अकाल मिर्त किऐ होइछै? अकाल मिर्त?
एही चिन्ता-विचारमे हीरा महतो पड़ल रहलाह। एक्का-दुक्का गँहिकी आबए, तकरा ओ चाह पिया देथि, पाइ ल’ लेथि, मुदा हृदयसँ आ मस्तिष्कसँ ओ कतहु आन ठाम छलाह। पछिला बीस बर्खक इतिहासमे ओ बौआ रहल छलाह। इतिहास जे छलै पछिला बीस बर्खक, जे घनघोर जंगल बनि गेल छलै। ओहि दिनमे जतनसँ रोपल पौध सभ आब बेतरतीब झाँखड़ बनि गेल रहए। औषधीय वनस्पति सभ सूखि क’ काठ भ’ गेल रहए आ ब’र-पीपर-पाखड़ि सन वृक्ष सभ धरतीक सभटा उर्वरता सोखि ल’ रहल छलै। हीरा महतो देखलनि जे छोटहन लता-गुल्म सभ कि तँ सुखा गेल छल, अथवा पीयर-कपीस भेल सुखा जेबाक क्षणमे प्रवेश क’ रहल छल। विशाल वृक्ष सभ अपन-अपन छाड़निक रद्दीसँ सौंसे इतिहासकेँ कबाड़खाना बना देने रहए। आ ताहि परसँ, सभटा रस चूसि गेल, तैयो सन्तोख नइं-हीरा पौलनि जे एकहक टा विशाल वृक्ष दस-दस टा जड़ि नमरा क’ धरतीकेँ सोंखि लेबाक आकुलतामे अछि। छोटहनसँ जे विशाल बनि रहल छल, सेहो सभ नहुएँ-नहुएँ एही अभियानमे जुटि गेल छल। आ रे बहिं, ई हमर देस थिक आ कि कोनो जंगल?-हीरा अपनेकेँ अपना कहलनि।
-ओहि बेर जे बड़का बाढ़ि एलै रहए हीरा-हीरा महतो अपनेकेँ अपना कहैत रहलाह-आ रे बा, एहन बिपत्ति काल नइं देखलौंहें। इन्दिरे गांधी के राज रहै ने? जते छाँटल शैतान सभ रहै, सबटा आन-आन काज छोड़ि क’ ब्लौक ध’ नेने रहै। बी. डी. ओ.केँ कहै जाइ हग, तँ हगए, मूत तँ मूतए। मिनिस्टर जे रहए चैधरी जी, से तँ लागए जेना एकरे सभक बल पर मिनिस्टर अछि। पचपनियाँ सभक सभटा रिलीफ साला इएह सभ खा जाइ? आ तों जे ठाढ़ भेलहक रहए हीरा, पचपनियाँ दिससँ, अन्हड़-बिहाड़ि आबि गेल रहै। नइं? आ ओ जे छिनरी भाइ दू जूता मारलकौ रहए तोरा, से तँ आरो कमाल क’ गेलै। सौंसे परोपट्टा के पचपनियाँ तहिया एक भ’ गेल रहै। गुलामी के ओ अन्तिम दिन रहै। नइं? आइ कोइ कहतै जे ओहो समय अही गाममे बीति चुकलैए?
-आ ओ जे रहथि हीरा, गजेन्दर मंडल पचगछिया बला, ओहो खूब मदति केने रहथि। हफ्ते-हफ्ते मीटिंग बैसए पचपनियाँ के, सौंसे परोपट्टामे चेतना पसरि गेल रहै। पचपनियाँ के डीलर अलग, विभाग अलग, कोन लुच्चाक मजाल रहै जे एकटा बेहूसल बात कहि देतै? बात-बात पर कलक्टर-एस. पी.केँ उतरए पड़ैक, बी. डी. ओ. के कोन मानि? सभ कहौ तोरा नेताजी। नइं? लेकिन, नेता तों भेलहक कहिया? सभ दिन चाहक दोकान करैत रहलह, बारहो बरनक अइँठ धोइत रहलह!
फेर हीरा ओतहि पहुँचि गेलाह आ फेर उदासीनता गछाड़ि लेलकनि। मोन कचकि उठलनि।
कचकले मोनसँ हीरा धरती पर उतरलाह तँ यादि पड़लनि जे दूधबलाकेँ आबैक बेर भ’ गेलैए। ओ दुधौंटा खाली केलनि आ ससपेन-डेकची-दुधौंटाकेँ कल पर ल’ जा क’ माँज’ लगलाह। आब बड़ी काल धरि कोनो गाड़ीकेँ आना-जाना नइं छै, चैक खाली भ’ गेल अछि।

कोनो छोट छीन क्रिया अपन समानताक बहन्नासँ पैघ-पैघ घटना सभकेँ स्मृतिमे जगा दैत छै। हीरा बासन माँज’ लगलाह तँ अनेरो एकान्ती मुस्की मुस्कियाब’ लगलाह। अपनहिकेँ अपना सम्बोधित कर’ लगलाह। जेना एहि बासनकेँ ओ माँजि रहलाहें, तहिना एक दिन भीलो-तिरबेनीकेँ, नागेसर-टुनमाकेँ, सीतो आ बसन्तकेँ, धुर कते कही, सौंसे पचपनियेकेँ माँजने रहथि। वाह जी नेताजी, खूब केलह, माँजैत-माँजैत गतर-गतर के मैल छोड़ा देलहक-ओ अपनेकेँ अपना कहैत छथि। मुदा, सब चलि गेल। सबहक सब चलि गेल। मैदान एकदम्म खाली। हीराकेँ फेर मोन पड़लनि-जाइत काल पितम्बर कहने रहए-चलै छियह हीरा कका, धीया-पुताकेँ देखिहक।
-ठीके तँ बात छिऐ भाइ, हमहीं ने एकटा बचल छिऐ-अपनेकेँ अपना हीरा कहैत छथि-एक मानेमे अगर सोचहक तँ बसुदेबा कोनो अनुचित बात नइं कहने रहए। हमहूँ तँ ओकरा बड़ भारी बात कहने रहिऐ! हँ उचित कहने रहिऐ से अलग बात, लेकिन रहै तँ भारिए!
परसू साँझ खन हीराक दोकान पर नेता सभक रेठान लागल रहै। बजरंग दल के पाठक जी, आ कांगे्रसक ठाकुर जीमे टक्कर सुरू भेल रहए। विषय रहए-हवाला कांड। तुरन्त चर्चा चारा-घोटाला धरि पहुँचि गेल रहै। तखन एहिमे वि. पी. पाक सुनील झा आ राजद के बासुदेब भगत सेहो संग भ’ गेलाह। भाजपाक रामचन्द्र झा आ समताक धनुषधारी सिंहकेँ चैक पहुँचबामे आइ थोड़े बिलम्ब भेल रहनि जरूर, मुदा चारा-घोटाला सुरू होइत-होइत, ओहो लोकनि जुमि गेल छलाह। धुरझार चल’ लागल, धुआँधार। कखनो-कखनो तँ एहन होइ जे एक्के बेर पँच-पँच टा बीर अपन बहुमूल्य सिद्धान्त-वाक्य दाग’ लगै छलाह। ओ क्षण आसमानकेँ फाड़ि दैबला क्षण होइ छलै। चैक मुदा अभ्यस्त छल। चैक लेल धनि सन। जनता-जनार्दन सभ अपन-अपन काज-रोजगारमे, अपन-अपन अमलमे लागल रहै छलाह।
चर्चा चलि रहल छल घमासान, हरेक नेता अधिकसँ अधिक अभिव्यक्त हेबाक अफरातफरीमे छलाह। मुदा, सभ क्यो एतबा समय निकालि लेल करथि जे बीचमे एक बेर हीराकेँ पूछि लेल करथिन-की हीरा, ठीक कहै छिऐ ने? ...की हीरा भाइ, तोहर की विचार? ...हीरा कका, तूँही कहक जे ई बात छिऐ कि नइं?-हीरा एक तरहें विचार-गोष्ठीक केन्द्रमे छलाह, यद्यपि ककरो कहियो ओ मंगनी चाह नइं पियाबैत रहथिन।
लागए जेना मण्डन-दल आ शंकराचार्य-दलमे तुमुल शास्त्रार्थ चलि रहल अछि आ निर्णायक छथिन भारतीक अवतार हीरा महतो। ताहि तरहक प्रतिष्ठा हुनका देल जाइनि!
प्रतिष्ठा हुनका बड़ भारी देल जाइनि, तकर कारण ई नइं जे चर्चाक अन्तमे ओ विजेताकेँ माला पहिरा क’ श्रेष्ठ घोषित करै छलखिन, तकर कारण ई जे ओ लगातार चुप्प रहए छलाह, एकदम्म गुम्म आ बड़ जरूरी भेल तँ ‘हाँ हूँ’ करैत।
चर्चा चलल छल ओहि दिन जबर्दस्त, मुदा, पण्डित लोकनिक कहल छनि जे दुनियामे जतेक तरहक बल अछि, ओहिमे टाकाक बल सभसँ जब्बर होइए। जितलाह अन्ततः बासुदेब भगत। सौंसे इलाकामे अनघोल छै जे बासुदेब भगत पछिला पाँच सालमे पचास लाख टाका कमेलक अछि। ओ सभकेँ निरुत्तर क’ देलखिन। एक तरहें बुझू जे सभ क्यो गछि लेलनि जे चारा घोटाला जे छल से, बहुतो कारणसँ उचित बात छल। आ ई जे भेल अछि से कोनो गलत नइं भेल अछि।
बस, इएह क्षण छल जखन हीराक देहमे आगि लागि गेल रहै। आगि मात्रा मुहावरे टामे लागल होइ, से बात नइं, हीरा एकदम होशमे अनुभव कएने रहथि जे हुनका देहमे आगि लागि गेल अछि आ ओ धू-धू क’ जरि रहलाह अछि।
भयावह प्रतिहिंसाक आवेगमे ओ बुमकारा छोड़ने रहथि-रे बसुदेबाऽऽऽ-एतबे बाजि क’ ओ रेघा देने रहथि। विस्फारित आँखि रहनि-आगिमे धह-धह करैत आँखि, एकाग्र बासुदेब भगत पर टिकल। निचला ठोर समुच्चा ओ दाँत तरमे दाबने रहथि आ दाँत किचने छलाह। सभ क्यो चकित रहि गेल रहथि। बासुदेब भगतकेँ सेहो आश्चर्य लागल रहए जे ई हीरा कका तँ हुनका ओइ दिनमे बासुदेव छोड़ि क’ बसुदेबा नइं कहियो कहने रहथि, जाहि दिनमे ई हुनकर चेला छलखिन।
प्रतिहिंसाक आगिमे जरैत हीरा महतो बाजल छलाह-रे निर्लज्जा, एतबो सरम कर! जे कुकर्म करै छें से अपन करैत रह, लेकिन एना समाजमे नइं कहिऐ जे कुकर्मे करब ठीक छिऐ। एतबो रहम कर बहिं...
ई तँ बड़ भारी बात भेलै! करोड़पति आ एम. एल. ए. होइ लेल अग्रसर बासुदेब भगतकेँ फूकि देने रहए। आऽऽऽ रे राम, एना तँ कोइ एस. पी. कलक्टरो ओकरा नइं कहि सकै छै। ओ क्रोधमे उठि क’ ठाढ़ भ’ गेल रहए। आ हीरा महतोक मुँह लग हाथ ल’ जा क’ कहने रहए-ऐ हीरा कका, जबान सम्हारि क’ बात करह! कोन बेटीचोद के कोठीक चाउर हम निकालि क’ ल’ आनलिऐ हें हौ? कहि त’ दिअए अइ गामक कोइ आदमी? बिना परमान के बात नइं बाजल करह।
-परमान? हँ रे बाबू, परमान तँ तोरे टा हिरदय जानैत हेतौ।-हीरा महतो आस्तेसँ बजलाह।
बासुदेब भगत मुदा, जेना हीराक बाते नइं सुनने होथि, घृणा आ क्रोधक पूर्ववत आवेगमे ओ बजलाह-आदमीकेँ अपन औकात देखि क’ बात करना चाही। खाइ लए बार नइं, बोल बड़ भारी हौ? बारहो बरनक अइँठ धोइ छह, अहिना धोइत जिनगी बिततह।
एही सभ तरहक दू-चारि टा आरो सूक्ति आ लोकोक्तिक प्रयोग ओ प्रायः कएने हेताह, से तकर स्मरण सोगक कारण हीराकेँ नइं छै, आ क्रोधक कारण बासुदेबोकेँ नइं।
-एक मानेमे अगर देखहक तँ बसुदेबा कोनो खराबो बात नइं कहने रहए!-हीरा महतो अपनेकेँ अपना कहलनि-तोंही ओकरा कम भारी बात कहि देलहक?-दोख तोरे छौ हीरा, कोइ दोसर दोखी नइं अछि। जादब जी जखन मिनिस्टर भेलाह तँ ओहो तँ तोरा कहने रहथुन-हीरा छोड़ह ई धन्धा, ठीकेदारी लाइनमे आबह।-तोंही नइं गेलहक।
बरतन-बासन माँजि क’ हीरा घुरलाह, तखन, हुनका मोन पड़लनि जे दूधबलाकेँ तँ आइ ओ मना क’ देलखिन अछि। साँझमे तँ आइ दोकान बन्द रहतै।
हीराक नसमे उत्साहक सुरसुरी पसरि गेलनि। ओ दोकान बन्न क’ आँगन जाएब उचित बुझलनि। धीया-पुता फुच्ची-शीशी जमा क’ सकतै की नइं! दू टा केराक गाछ सेहो काटबाक अछि, गेटो बनाए देबै। दीप जरए आइ भारत माता के नाम पर। वन्दे मातरम्। हीरा अपनेकेँ अपना कहलनि-नइं रे भैया, नइं! हारि तँ हम नहिएँ मानबहु।
काल्हि सँझुकी पहर जिला जन सम्पर्क विभागक गाड़ी चैक पर एलै रहए। जीपसँ प्रचार होइत रहए जे अइ साल ‘आजादी के पचासम वर्षगांठ’ छिऐ। स्वर्ण जयन्ती। से, अइ दिन सब क्यो अपना-अपना घरमे ‘दिवाली’ मनाउ। हीरा सुनने छलाह, अझक्के-सन। कान-बात नइं देलखिन। एहिना बहुत तरहक प्रचार होइत रहै छै। मुदा, गाड़ी चैक पर आबि क’ रुकि गेलै आ रुकि क’ प्रचार करए लगलै। गोलम्बर पर ओहि कालमे ‘एलेवन स्टार’ के नौजबान सभ गाँजा पिबैत रहए। ओहि नौजबान सभक कानमे झ’र पड़लै आ दिक भेलै। ओ सभ चहटि क’ जीप बला लग आएल छल आ प्रचार बन्द करबा लेल कहने छल। तकरा बाद ‘एलेवन स्टार’ क बाॅस प्रचार बलाकेँ कहने रहै-आप किसके तरफ से परचार करने आए हैं?
-बिहार सरकार के तरफ से।
-ओ...। बिहार सरकार हमको कहता है दिवाली मनाने के लिए, हम तेल कहाँ से लाएँगे? बिहार सरकार हमको तेल का पैसा देगा? साला घोटाला करेगा वो सब, और दिवाली मनाएगा पब्लिक? इतना बेकूफ समझते हैं पब्लिक को? बोलिए, जवाब दीजिए।
प्रचार बला गुम भ’ गेल रहए। बाँकी नौजबान सभ हिहिया देने रहए।
एहि क्रममे जखन हल्ला भेलै, तखन हीरा महतो अकानने छलाह आ बातकेँ बुझने रहथिन। प्रचार बला अपन जीप ल’ क’ आन-आन टोल प्रचार करए चलि गेल रहै। हीरा महतोकेँ एलेवन स्टारक मन्तव्य बड़ स्पर्श कएने रहनि। ओ बड़ी काल एहि विषयमे विचार कएने रहथि। आ तखन अपनेकेँ अपना कहने रहथिन-रस्ता लेकिन ई ठीक नइं भेलै हीरा! नइं? की इएह होअए जे हम सभ किछु नइं करी? हमर कोनो फर्ज नइं?
आ, हीरा तखनहि निर्णय कएने छलाह जे आइ दिवाली मनौताह। दूधबलाकेँ रोकि देने रहथिन। तेलक इन्तिजाम केने रहथि। आँगन जा क’ कनियाँ आ धीया-पुताकेँ निर्देशो द’ देलखिन। मुदा, जुलुम देखियौ जे आइ भरि दिन बिसरल रहलाह।
हीरा आँगन घुरलाह। फुच्ची-शीशी ताकल गेल। बाती बनल। तेल पड़ल। केराक थम्ह काटल गेल। गेट सजल। बाँसक बत्ती जहाँ-तहाँ बान्हल गेल आ ताहि पर डिबिया जराओल गेल। धीया-पुता आनन्दमे छल। सौंसे टोलक नेना-भुटका जुमि गेलै। मुक्त आलाप पसरए लागल। हीरा परम प्रसन्न छलाह। हुनकर मोनक उदासीनता जेना झरकि-झरकि धरती पर खस’ लागल-एनमेन फतिंगा जकाँ।
ताही कालमे पं. भोलानाथ मिसर हीराक ओहि ठाम पहुँचलाह। देखलनि जे सौंसे गामक भकोभन्न अन्हरियाक बीच हीरा महतोक दलान जगमगा रहलनि अछि। पुछलखिन-की हीरा, ई की हौ?
-आइ स्वर्ण जयन्ती दिवस छिऐ कका।
-हँ हौ, प्रचार हमहूँ सुनने रहिऐ। इच्छो भेल रहए जे दीप जराएल जाए। मुदा, बिसरि गेलिऐ। तोहूँ हमरा नइं कहलह!
-उचित बात कोइ थोड़े बिसरै छै कका!-बहुत आस्तेसँ हीरा कहलखिन, जेना ओ पण्डित जीकेँ नइं, अपनेकेँ अपना कहि रहल होथि!!
पण्डित जी आगाँ बढ़ि दरबज्जा पर जा क’ चैकी पर बैसि रहला। ओहू ठाम जगमग करै छलै। बजलाह-आबह हीरा, बैसल जाए कनी काल।
-हे इएह अबै छी कका-कहैत हीरा आँगन गेलाह आ ओम्हरसँ भरि चँगेरी पेड़ा नेने घुरलाह। सौंसे टोलक नेना-भुटकाकेँ पेड़ा बिलहि क’ ओ पंडी जी लग पहुँचलाह। पण्डित जी एकटा पेड़ा लेलनि, एकटा हीरा अपनहुँ लेलनि।
इजोतक जगमगी आ पेड़ाक मिठाससँ प्रसन्न होइत पण्डित जी बजलाह-वाह हीरा, वाह, असल मर्द तों छह जे भारतमाताक पर्व मनेलह। ओम्हर देखहक जे सौंसे गाम अन्हारमे बिलाएल छै।
बाल-गोपालक संग हँसी-खेल करैत हीरा एखन चंचल बनल छलाह। पण्डित जीक गप हुनका अचानक गम्भीर बना देलकनि। बजलाह-दुनू बात तँ अहीं करै छिऐ कका! सौंसे गाम जखन अन्हरियामे बिलाएल छैहे, तखन हम असल मर्द कोना भेलहुँ?
-हँ, बात तँ ठीक हौ; मुदा ई ककर सक?-पण्डित जी बजलाह।
-हें... हें... हें हें...-हीरा हँस’ लगलाह। बजलाह-अइ गामक पचपनियाँकेँ देखियौ कका! आ, अइ गामकेँ की, सौंसे देशेकेँ देखि लियौ। लोक गुलाम रहए। क्यो एकटा मर्द आदमी एलै, जुगुत बतेलकै, लोक जतन केलक आ आजाद भेल। थोड़ बरस बितलै कि फेर गुलाम भ’ गेल। आजादीकेँ सम्हारि क’ राखब जँ पार नइं लागए तँ एकरा की कहबै?
ताधरि, बहारमे बच्चा-पार्टीमे घोल-घमासान होअए लागलै। हीरा बहार निकललाह। ओ देखलनि जे ऊँचका बत्ती परहक एकटा डिबिया मिझा गेलैए, जकरा फेरसँ जरेबाक लेल बच्चा सभमे अफरा-तफरी मचल छै। सभसँ बेसी परेशान अछि बबलू, पितम्बर पासवानक बेटा। हीरा महतोकेँ ई दृश्य बड़ नीक लगलनि। ओ पण्डित जीकेँ बजौलनि। कहलखिन-कका, एखने अहाँ पुछने रही ने जे ई ककर सक? हे इएह देखियौ! मिझाएल डिबियाकेँ जरेबाक लेल कते बेचैनी छै!
पण्डित जी बबलूकेँ पीठ ठोकलखिन। हीरा ओकरा कोरामे उठौलनि। बबलू मिझाएल डिबिया उतारलक। डिबियामे तेल छलैहे, ओ बसातक झोंकमे मिझा गेल छल। बबलुए हाथें फेर डिबिया जरबाओल गेल। सभ बच्चा थपड़ी पाड़ए लागल।



कविता

नंदीग्राम पर पंचक
एक

जनता जागल भूमि लए
बाजि रहल दू टूक
जनवादी के हाथ मे
एम्हदर छैन्ह बंदूक

एम्हदर छैन्ह बंदूक
दनादन गोली मारथि
टाटा बिड़ला के खड्ढा मे
जन के गाड़थि

जे छल जनता केर पहरुआ
सैह अधक्की भेल
सोभथि श्री बुशराज मुकुटमणि
देश भांड़ मे गेल

दू

जे जनता के गठित क'
बनल छलाह बदशाह
सएह कहै छथ‍ि कुपित भ'
जनता बड तमसाह

जनता बड तमसाह
सुनए नहि एको बतिया
बुश केर की छैन्हय दोख
एतुक लोके झंझटिया

छलहा मार्क्सझ के प्रबल प्रबंधक
आब बजाबथि झालि
आबह राजा तंत्र संभारह
गां मे रान्ह्' दालि

तीन

गां मे लोकक खेत अछि
खेते थिक अवलंब
सएह कहै छथि बादशाह
छोड़ै जन अविलंब

छोड़ै जन अविलंब
कंपनीक बैरक आबै
अपन मजूरी पाबि
देस के मान बढाबै

एहन देस ओ बनत
जतक जनता होअए नि:स्वोत्व
संसद बौक बनल अछि देखू
राजनीति के तत्वि

चारि

लोक छलिए चुप आइ धरि
देखि रहल छल खेल
जनता के जे रहए आप्तआ जन
सएह गिरह कट भेल

सएह गिरहकट भेल
आब ओ मैल छोड़ाओत
छोड़त ने क्योा खेत
भने सब प्राण गमाओत

टाटा बिड़ला के बस्तीय मे
जनता ने क्योक हएत
जे बसतै से कुली कबाड़ी
देस बेच क' खएत

पांच

सएह कहै छी
सुनह वियोगी
बूझह की थिक 'सेज'
तों छह ककरा पक्ष मे
गांधी कि अंगरेज

गांधी आ अंगरेज दुनू मे
बाझल झगड़ा
निर्दय नइ झट हएत
बुझाइ-ए जोड़ा तगड़ा

बचत कोना क' लोक
भूमि, से सएह झकै छी
गांधी आ अंगरेज एतहु छथ‍ि
साफ देखय छी।

मीता, अहाँक हँसी
जिनगी
बहुत अदगोइ-बदगोइ भेल जाइत अछि।
साँझकें डुबैत जे अछि सुरुज
उगैत नहि अछि भोरकें नित्तह
रातुक कालिमा किछु आर घटाटोप भेल जाइछ।
सुनू मीता!
एहिना खिलखिलाइत रहियौ
एहिना खण्ड-खण्ड बाँटू कालक शाश्वतता
सुनू मीता!
अहाँक हँसी अन्हारक एक-एक कपाट
तोड़ि खबसैत अछि।
अहाँक हँसीक इजोतमे
बहुत साफ देखाइत अछि--
एक-एक टा बाट। लक्ष्य-बिन्दु।

किन्नहु कठिन नहि अछि जीवन
जँ एहिमे अहाँक हँसी हो
अहाँक उपस्थिति हो आलोकमय
सुनू मीता!
किन्नहु अन्हार नहि रहत राति
जँ हाथमे मशाल हो
किन्नहु भयप्रद होयत नहि नदी
जँ मजगूत नाह हो संग।

बहुत तँ प्रयास केलक अछि अन्हार
बहुत-बहुत बेर तँ आक्रमण केलक अछि
जानि नहि कतोक बेर
त्राहि-त्राहि मचा देलक अछि अन्हार
मुदा तैयो
कहाँ उकन्नन क’ सकल प्रकाशक वंश?
सुनू मीता!
एहि सुरक्षित प्रकाश-वंशक
सम्बल थिक अहाँक हँसी
सुनू मीता!
एहिना खिलखिलाइत रहियौ
एहिना खण्ड-खण्ड बाँटू कालक शाश्वतता।
सुनू मीता!
अहाँक हँसी अन्हारक एक-एक कपाट
तोड़ि खसबैत अछि
अहाँक हँसीक इजोतमे
बहुत साफ देखाइत अछि
एक-एक टा बाट
लक्ष्य-बिन्दु।

पितामहसँ
हे, हम अपन श्रमहि
सन्तुष्ट छी पितामह!
कनियों नहि भरमबैत अछि हमरा
उपलब्धिक मोह
पुरस्कारक आसक्ति
छूबि नहि पबैछ चेतनाकें।

अपन रक्तक एक-एक बुन्नसँ
गोहरबैत छी --
स्वतन्त्राता! स्वतन्त्राता!!
श्वासक एक-एक धुन
हमर कत्र्तव्यकें मोन पाडै़त अछि।

ई अहाँ की कहैत छी पितामह!
नहि नहि
कहियो नहि हम त्यागब अपन ज्वलन्त विचार
कहियो नहि लगतै कजरी विवेक पर!

मूल्यांकन तँ हम अवश्श करै छी अपन कर्मक
मुदा, एकर असली निर्णायक होएत -- समय
समय -- जे एखन नहि आएल अछि!

अहाँ विश्वास राखू पितामह !
अपन उपलब्धिसँ परितृप्त होएबाक अवकाश
नहि अछि हमरा
हम अपन श्रमहिसँ सन्तुष्ट छी पितामह !

बागडोरामे भिनुसरबा
तोहर बनाओल चाह
अक्कत लगैत अछि हौ बाउ होरीपोदो राय,
टूटल नहि अछि एखन धरि निशाँ
झम्फ एखनो बाँकी अछि, लगैत अछि--
वातावरणेमे बेसी नमी अछि अथवा हमरहिमे
ग्रहण-शक्तिक कमी अछि।

तोहूँ बरु बलेलक बलेले रहि गेलें प्रदीप
ने जानि कते बेर अएलें-गेलें अइ इलाका
मुदा अनभुआरे रहि गेलौ मौसमक मिजाज --
अन्हरियासँ जे बनै छै बिम्ब सभ रौ बच्चा
से सभटा मृत्युएक प्रतीक नहि होइछ।

अमलतासक नबका सुपुष्ट पात सभ पर
झूला झूलए लागल अछि बसात,
नीमक गाछ पर चुनमुनीक बसेरा अकुलाए लागल अछि।
ओहि फुदकी चिडै़याकें देखही
कोना अतत्तह क’ रहल अछि!
दौड़ि एत्तय भागि ओत्तए
हमरा तँ लगै’ए एक तोड़
आह्लादें जान बहरा जएतैक एहि बतहियाक!

हँ कौआ नहि बाजल अछि एखन धरि!
मुदा कौआ करए उद्घोषणा, तखनहि मानी भोर--
एहि कुबोधसँ जनमैए
क्रान्तिमे चिल्होर!

देख-देख प्रदीप तोहूँ देख
प’ह फटबाक संकेत द’ रहल अछि क्षितिज-सीमान्त,
आब लाइन होटलक एहि खाट परसँ, उठ प्रदीप
फड़िच्छ होब’ लागल अछि, देख
चल आब हम सभ चली
नक्सलबाड़ी थोड़बे दूर बचल छौ आब!

बाबा
अहाँ तँ आब बूढ़ भेलहुँ बाबा!
अपन एहि दाँत सभसँ
रोटी चिबा होइए?

रातिकें सुझै’ए बाबा?

बाबा, बिना चश्माक तँ नहि देखि पबैत हेबै
अपन पौत्रा सभक मुँह?

रातिकें भरि पोख निन्न होइए?
पाचन-शक्ति तँ ठीक नहिएँ रहैत हएत?
दुखाइत रहैत हएत हड्डीक पोर-पोर,
कोस भरि पैदल चलबाक साहस तँ
नहिएँ जुटा पबैत हेबै की ने?
की करबै बाबा!
अहाँक तँ आब उमेर भेल
जुग बीतल

की करबै!

मुदा, धन्न छी अहूँ बाबा!
एत्ते संघर्ष!
एत्ते प्रतिकार!!
एहन प्रतिहिंसा!
एत्ते धधरा!!

ओह!
अहीं ठीक कहै छी बाबा
अन्यायक विरुद्ध लड़बाक उमेर
कहियो नहि बीतै छै


प्रभु राग
एहने-एहने चिन्ता दिअ’ प्रभु हमरा
एहने-एहने फिरिशानी।
थोड़े आर दुख दिअ’ हमरा प्रभु
थोड़े आर तकलीफ।
एहने-एहने यन्त्राणा दिअ’ प्रभु हमरा
एहने-एहने सन्त्रास
एहने-एहने पीड़ा एहने-एहने क्लेश

विह्नलता दिअ’ तँ एहने-एहने प्रभु
एहिना मारैत रहू डाँग

आर तँ अहाँ द’ की सकब एहि मूत्र्तिभंजक-आकारकें
देने चलू देने चलू अनन्त जनमक वनवास

मुदा, स्मरण राखब हमर प्रभु!
हमर बाट एतहिसँ निकसत।
एतहिसँ प्रारम्भ हएत विजय-यात्रा
एहि दुनियाँसँ नीक दुनिया बनेबाक संकल्प
एहि ठाम जन्म लेत। जनमताह विश्वामित्रा।

अहाँ चाही तँ
हमरा थोड़े आर दुख दिअ’ प्रभु
थोड़े आर यन्त्राणा।

संलग्न
परदेशमे छी निपट एकसरुआ। ने माइ ने बाप। सखा-
सन्तान नहि। ने गाम ने समाज। हर्ख भेल तँ बरु नाचि
सकै छी सड़को पर मुदा दुख भेल तँ कान’ पड़त
भीतरे-भीतर। मर’ जँ चाहथि मियाँ एत्त’ तँ अपनहि
सँ खूनि लेब’ पड़तनि अपन कब्बर। ओफ् ... ई
परदेश थिक की काल-कोठली?

मुदा पड़ि जखन गेल छी बेराम
माथ पर हाथ राखि आशीष देब’ एलीह माइ
सिरमा दिस ठाढ़ भ’ पिता समझा रहल छथि
सदति स्वस्थ रहबाक भाँज। पत्नी बेर-बेर ठानि
रहल छथि जिद्द कि हम सौंसे गिलास दूध पीबि ली।
नहुँए-नहुँए बुधियार होइत बेटा हमरा ललाट
कें हाथसँ छूबि करैए प्रश्न-- बाबूजी, कोसीक पानि
तँ कहियो बेराम नहि पडै़ छै कि ने?

गामसँ हज्जार कोस दूर एहि अपरिचित शहरमे --
दुमहला-चैमहलाक एहि जंगलमे --
बेराम जखन पड़ै छी हम, ततेक लोेक अबै’ए जिज्ञासामे
अकच्छ रहै छी हम। जते तरहक लोक, तते तरहक
उपचार। मना कका पीसि अनै छथि बरियारक सीड़।
सरजुग कका वैद्य बजौने अबै छथि। नबकी काकी बना
लबै छथि काढ़ा। रघुनाथ भैया भगवती थानक भभूत
नेने जुटै छथि। साइकिल सम्हारने मुँहथरि पर ठाढ़
देखाइत अछि भगवानजी। वाह जी वाह, अजगुत
फजगज अछि सौंसे कोठलीमे।

आ, निपट एकसरुआ एहि काल-कोठलीमे किऐ
हमरा एक्को बेर लागत कि हम बेराम छी।

अद्वैत
स्वपाकी छी तें करै’ए पड़त भानस, माँजै’ए पड़त बासन अहल भोरे
से मुदा एखन एहि सोहारी बेलैत काल
अचानक हम अतिशय-अनन्त ममत्वपूर्ण भ’ गेल छी।

नहुएँ-नहुएँ बहुत आस्तेसँ
सानल आटाक लोइया पर चलबै छी बेलना
बहुत ममता अछि हमरा हाथमे। लगै’ए जेना
अपन नान्हि-सन बेटाक कपोल सहलाबैत होइ
अत्यन्त प्रिय पोथीक कोनो प्रियतर पृष्ठ सहेजैत होइ जेना।
आस्तेसँ चलबै छी बेलना, जेना सोहारीक चाम
छिला जएबाक आशंका हो। किऐ अछि हमरा हाथमे एते ममता?

वैदिक ऋषि होइतहुँ कोनो... नहि विश्वामित्रा तँं गृत्समद
तँ मन्त्रा उचारितहुँ--
अन्न! हमरा बुभुक्षा-द्वार द’ क’ पैसि क’ जाउ हमरा
रक्तमे। परिनिष्ठित करू संस्कार। अमोघ आतुरता
दिअ’ हमरा; अजस्त्रा सन्ताप। मुदा अन्न, मजगूत करू
हमर मोन कि ई फूल, ई वनस्पति, बह्म-तन्त्राी केर ई
अनुराग-तन्त्रा हमरासँ होअए विभूति-सम्पन्न!
अन्न! बुभुक्षा-मार्ग द’ क’ पैसू भीतर आ परिनिष्ठित
करू संस्कार!

वैदिक ऋषि तँ नहि छी हम मुदा, हमरो हाथमे भरल
अछि अमोघ-अजस्त्रा ममता। हमर कायामे अजगुत-अजगुत
बिम्ब-स्फोट। हमरो आत्मा झुलैए झूला चोंचाक खोतामे
ताड़क गाछ पर लटकल अण्डाक संग हौले-हौले! यद्यपि
कि वैदिक ऋषि किन्नहु छी नहि हम।
स्टोव पर चढ़ाओल तवा तपि गेल अछि मुदा हमरा लेल
धनि-सन। सिनेहसँ थपथपाओल कोमल कपोलबला
ई सोहारी चढ़ा नहि पाबि रहल छी तवा पर। केहन
भयाओन अछि ई भावुकता! एकरे कहै छै माया?
ई अग्नि आ ई अन्न जँ करत नहि संयोग
कतए सँ आनि पाओत परिनिष्ठित संस्कार?
वैदिक ऋषि जें कि छी नहि हम असलमे
हमर ममता बेर-बेर बनि जाइए माया।
वैदिक ऋषि जें कि हम भेलहुँ नहि,
कोना भ’ पाएब कवि?

मिथिलाक लेल एक शोक-गीत
हमरे चेतनाक दोमटसँ जनमल छल
ई छाँहदार वृक्ष सभ
जकर एक-एक डारि पात काटि-काटि
हम अपना पशु-वर्गकें खुआएल अछि।
राजा शिवसिंहक पगड़ीकें हम
लंुंगी बना क’ पहिरल अछि अपन एकान्तमे।
अपन एकान्तमे हम
कहियो नहि सुन’ चाहलहुँ अछि अपने आवाज।
मिथिला बिराजै तँ छली हमरा तन-मनमे सम्पृक्त
मुदा व्यसनी हम तेहन
जे अपने तन-मन खखोड़ि-खखोड़ि
समिधा जकाँ झोकलहुँ अछि
बेहोशीक कुण्डमे।
सौंसे पृथ्वी, सम्पूर्ण देश, समस्त समाज
हमर बेहोशीक केलक अछि अभ्यर्थना
मुदा विडम्बना एहि समयक!
लटुआएल झूर-झमान मिथिला
हमरे आत्मामे थरथराइत रहल छथि
पीपरक पात जकाँ पूरे समय।

एहि भूमण्डलीकृत समयमे
सभ क्यो क’ रहल अछि
हमर बेहोशीक अभ्यर्थना
जखन कि देखू
अपने दुनू पैरक
सिन्दूरकाभिषिक्त अरिपन बना क’
टाँगि जँ लितहुँ कोठलीमे चैबगली,
सेहो बनि सकै छल
हमर जागरणक कारण।

बुद्धक दुख
पैंतीस बरस पर घुरलाह अछि बुद्ध
रहलाह एहि बीच पटना संग्रहालयक कारागारमे।

पैंतीस बरस पहिने मनुआँ धारमे बासा छलनि
आब बसै छथि कारू संग्रहालयक धमनभट्ठीमे
देह लगा क’ टाँगल छनि साइनबोर्ड
जे ओ मनुआँ धारसँ बरामद भेलाह।

संस्कृति, जाहिमे झुमका बरामद होइत हो दुमकामे
आ कनबाली काशीमे,
बुद्ध बरामद होथि मनुआँ धारमे, कोन आश्चर्य?

तरह-तरहें लोक व्यक्त क’ जाइए अपन ओछपन
आ बुद्ध आँखि मुनने
निश्चेष्ठ बैसल रहै छथि।

बुद्धकें एखन आर बहुत
दुख भोगबाक छनि बुझाइ’ए!
पण्डित-पण्डा लोकनि, केलनि अछि प्रयास
बुद्ध फेरसँ मनुआँ नदी-तट पहुँचथि।
ओ लोकनि महामान्यगणकें क’ रहलाह अछि प्रभावित
ब्राह्मण-ब्राह्मणक दैत दोहाइ।

मनुआँ-कातमे पहिने बनतनि मन्दिर
जतए बुद्ध कालभैरव वा शीतला माइ
कहि क’ पूजल जेताह।

जहिया कहियो फेर
कएले उद्घाटनकें उद्घाटित करै जेताह
इतिहासकार लोकनि
जे ओ शीतला माइ नहि, गौतम बुद्ध थिकाह,
एक बेर फेर मनुआँ धारमे गोड़ल जेताह बुद्ध।

जानि नहि फेर कहिया
बहरेेताह मनुआँ धारसँ
आ फेर पहुँचताह
कहिया पटना संग्रहालय?




हम थम्हैत छी जखन कलम
मेटा जाइए सभसँं पहिने
सभ केर सभ दुश्चिन्ता
मेटा जाइए द्वेष, क्लेश
उद्वेग हृदय केर,
मन केर चंचलता दुष्टाही
विदा होइछ पलछिनमे।

एकाकीपन किला भयावह
ढहि जाइत अछि,
टूटि-बिला जाइछ पलछिनमे
दुर्जय अहंकार केर दुर्ग

ई सभ होइए
सभटा होइए
बस पलछिनमे।

झबर-झबर क’
खूजि जाइए रिक्तताक केबाड़,
प्राणक बन्हन, गेंठ हृदय केर
खूजि जाइए
कोसी केर जनु टूटि गेल हो बान्ह

आफन तोड़ि किछु-किछु
बड़ किछु
बहुत-बहुत किछु
हमर प्राणमे आत्मामे
हमर मोन केर अकाबोनमे
आफन तोड़ि भरैए बड़ किछु--
हम थम्हैत छी जखन कलम
कलम थम्हैत अछि
जै खन हमरा।